गुरु का हाथ, चिद्आकाश





आहिस्ता आहिस्ता, खुलती है जैसे

इक इक पंखुड़ी कमल की वैसे,


मेरे मन को छू कर जाती ,

तुम्हारे चरण कमलों की आहट।


गुरुदेव तुम्हारे चरणों से,

निशब्द स्वर में उठता वंदन।


जैसे अतंरिक्ष की गूंज,

में मिले

सीतारों का क्रंदन ,

जैसे सूरज की पहली किरण में,

ओस की झिलमिलाहट ,

और , खिलती धरती की मुस्कुराहट,

जैसे बादलों की ओट से,

चन्द्रमाँ का उजाला ,

रोशन करता , यह जग सारा ,

वैसे ही इस मन मँदिर के,

हर कोने से भागा अंधेरा।


अनकहा यह एहसास तुम्हारा

हर साँस के झोंके,

पर हो के सवार

उजागर होता

खुशबू का फवारा

मानो अन्तर आत्मा खिलकर ,

आयी है बहार ।


स्वागतम, स्वागतम,

जीवन में

गुरु का आगमन..

अब तुम रखते हो

मेरे सर पर हाथ

फिर..

बादल छाये होते हों

वर्षा रिमझिम रोती हो

लेकिन अब..

बादल की ओट से

एक किरण

सुन्हैरा तीर बन

बादलों को बेधती

अन्तरमन के स्वर्ण कमल में

ॐ का विस्फोट बन.. 

रमती मेरे रोम रोम में

अब धरती बनी

शिव मृदंग की तार

       सर्वस्व 

अनन्त उजाले का अहसास


गुरु के ज्ञान की धारा

जैसे गंगा की निर्मल लहर 

एक -एक करके,

धोती मनसे द्वेश

प्राप्त होता परम ज्ञान

विचारधारा होती महान

हम आत्मज्ञान में होते पार

ध्यान की दीक्षा

से सम्यक ज्ञान

और सत्व, होता उजागर

अतंरमन के परम सत्य से

मन, आत्मा होती अवगत..

अब 

अस्तित्व हुआ...

चिद्आकाश

गुरुजी, ये तुम्हारा हाथ

यहीँ है चिद्आकाश |

अब तो हर क्षण …

आनदं ही आनदं …



- Punam Jain (पूनम जैन)

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